रविवार, 30 दिसंबर 2012

सोमनाथ का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य - रोमीला थापर


जब हम रोमिला थापर जैसे इतिहासकार को सूनते हैं, तब हमें लगता है कि वाकई में इतिहास सिर्फ राजा-महाराजाओं के जीवन की कहानी नहीं है और तथाकथित आक्रमणों और युद्धो के पीछे एक गतिशील समाजजीवन होता है, जो हंमेशां अलग अलग समुदायों के सहअस्तित्व की बूनियाद पर खडा रहता है. कल अहमदाबाद में गुजराती साहित्य परिषद के हॉल में देश के प्रमुख इतिहासकार रोमीला थापर ने जब सोमनाथ के ऐतिहासिक परिप्रेश्य पर विद्वतापूर्ण प्रवचन दिया, तब उन्होने न सिर्फ सोमनाथ के, मगर पूरे देश के इतिहास को लिखने एवम् समजने के हमारे द्रष्टिकोण के बारे में कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाये.

आज का इतिहासकार पचास साल पहेले के इतिहासकार की तुलना में अतीत की घटनाओं का ज्यादा पृथक्करण करता है और उसे एक विवेचक की तरह परखता है, इस कथन के साथ रोमीलाजी ने सोमनाथ के इतिहास से जूडे शिलालेखों की और हमारा ध्यान आकृष्ट किया. उन्हो ने कहा कि पचास पहले सोमनाथ का इतिहास सिर्फ तूर्की तथा पर्शीयन भाषाओं में लिखी गई सुल्तानों के दरबारों की तवारीखों के आधार पर समजा जाता था. सोमनाथ मंदिर से जूडे शिलालेखों तथा चौलुक्य राजाओं के इतिहास संबंधित जैन प्रबंधो में सोमनाथ का सच्चा इतिहास छुपा है, मगर उसकी उस वक्त उपेक्षा कि गई थी और उसका कारण यह था कि ब्रिटिश इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को हिन्दु, मुस्लिम और ब्रिटिश ऐसे तीन हिस्सों में बांट लिया था. उनका हिन्दु युग सन 1,000 तक चला, जो संस्कृत स्रोंतों पर निर्भर था. उसके बाद मुस्लिम युग शुरु हुआ, जो पर्शीयन द्रष्टिकोण से लिखा गया था. महमुद गझनी का आक्रमण 1026 में हुआ था और उसे केवल पर्शीयन नजरीये से ही देखा गया था. सोमनाथ जैसी एक छोटी सी घटना को किस तरह संस्थानवादी इतिहासकारों नें भारतीय इतिहास के एक अहम मुद्दे में परिवर्तित कर दिया, इस गुत्थी को रोमीलाजी ने सटीक तरीके से समजाया. 

"When we teach history, we teach our students to be particularly careful about prashasti (प्रशस्ति)," said Romila. सुल्तान के दरबारों की तवारीखों में मुहमद के आक्रमणों के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन स्वभाविक तौर से मिलते हैं. ऐसी प्रशस्तियां लिखनेवाले दरबारी लोगों का जीवननिर्वाह ऐसे उपक्रम पर ही चलता था. राजा, चाहे हिन्दु हो या मुसलमान, प्रशस्तियों के बिना भला कौन जी सकता थ? इन पर्शीयन तवारीखों का सबसे रसप्रद पहलु यह था कि वे उस मुद्दे पर एकमत नहीं है कि महमुद ने जिस चीज़ का नाश किया वाकई में वह चीज़ क्या थी. कुछ ने कहा महमुद ने जो नष्ट किया वह शिवलिंग था. कुछ ने कहा वह वही "सु मनात" का पथ्थर था, जिसे नष्ट करने का पयगंबर ने आदेश दिया था. तीसरी तवारीख कहती है कि वह पथ्थर था, और जब उसको छेदा गया तब उसमें से रत्नों का बडा जथ्था निकला था. चौथा वृतांत कहता है कि वह लोहे की बनी मूर्ति थी, जिसे चुंबक की मदद से हवा में लटकाया गया था. और कुछ वृतांत ऐसा भी बताते हैं कि सुल्तान ने मंदिर की जगह मस्जिद बनाई थी. तो बाद में सुल्तान ने जो हमले किये वे सब क्या इस मस्जिद पर किये थे?
 
मंदिर की आसपास के संस्कृत शिलालेखों में, जो इस घटना के तूरन्त बाद और उसके पश्चात तीन सदी दौरान लिखे गये हैं, महमुद का कोई उल्लेख नहीं है. उनमें से कुछ शिलालेख में लिखा है कि किस तरह छोटे मोटे राजाओं द्वारा उस वक्त मंदिर की पूजा करने आये यात्रिकों को लूंटा जाता था. ऐसे राजा जो यात्रिकों से यात्री कर की मांग करते थे. चौलुक्य शासन ऐसे लूंटेरे राजाओं से यात्रियों को बचाता था. बारवीं सदी के एक बडे अभिलेख का रोमिलाजी ने जिकर किया, जिसे नुरुद्दीन फिरोझी नाम के एक आरब व्यापारी लिखा था और उसमें उस व्यापारी को सोमनाथ मंदिर की कुछ जमीन मस्जिद बनाने के लिए बेची गई थी इस बात का उल्लेख मिलता है. और इस बीक्री में वहां के महाजनों तथा राजा की संमति थी. यहां पर रोमिलाजी एक बहुत महत्वपूर्ण बात हमें बताते हैं कि अरब तथा तूर्क (टर्कीश) में बडा फर्क था. हजारों सालों से गुजरात के व्यापारियों का अरबस्तान के साथ संपर्क था. अरबस्तान घोडे के व्यापार का केन्द्र था. अरब और तूर्क के व्यापार हित अलग थे. सुल्तान महमुद तुर्क था. और गझनी को इस व्यापार का केन्द्र बनाना चाहता था. आज हम अरब और तूर्क को "मुसलमान" की कोमन केटेगरी में बांधते हैं, मगर उस वक्त ऐसा "होमोजीनस" मुसलमान नहीं था.

महमुद के आक्रमण के सौ साल के बाद चौलुक्य वंश के राजा कुमारपाल के शासन में मंदिर के मुख्य पुजारी भव बृहस्पति द्वारा एक लंबा अभिलेख प्रसिद्ध हुआ. उसमें बताया गया कि मंदिर स्थानीय शासकों की उपेक्षा की वजह से जर्जरीत हालात में था और भव बृहस्पति ने मंदिर का जिर्णोद्ददार करने के लिए राजा को समजाया था. इस अभिलेख में कहीं भी मंदिर की जीर्ण स्थिति के लिए महमुद को जिम्मेदार ठहराने का या मंदिर का मस्जिद में परिवर्तन होने का कोई भी उल्लेख नहीं है. 

जैन विद्वान मेरुतुंग ने चौदहवीं सदी के गुजरात का इतिहास लिखा है, जिस में चौलुक्य वंश का वर्णन है और उस वंश का मंदिर के साथ क्या संबंध है यह भी बताया गया है, मगर उसमें कहीं भी महमुद का उल्लेख नहीं है. इस इतिहास का एक मुख्य केन्द्रबिंदु यह भी है कि कुमारपाल मंदिर का जिर्णोद्धार करवाता है. यह इतिहास जैन द्रष्टिकोण से लिखा गया है और वह मंदिर के मुख्य पुजारी भव बृहस्पति के कथन से विपरीत है. मेरुतुंग लिखते है कि समुद्र के खारे पानी की वजह से मंदिर की जीर्ण अवस्था हुई है. अभिलेख में बताया गया है कि मंदिर का जिर्णोद्दार करने के लिए राजा कुमारपाल को जैन मंत्री हेमचंद्राचार्य ने समजाया था. कुमारपाल ने बाद में जैन धर्म अंगीकार किया था. 

इस तरह से जो बात पर्शीयन तवारीखों में लिखी गई विरोधाभासी प्रशस्तियों का हिस्सा थी और खुद गुजरात के चौलुक्य वंश से जुडे ऐतिहासिक प्रमाणो और साक्ष्यों में कहीं भी नहीं थी, वह बात "hindu trauma" बन गई और आज उसे इस तरह पेश किया जाता है कि वह हजारों सालों से हमारी "collective memory" का हिस्सा बन गई है. इस देश के इतिहास को हिन्दु, मुस्लिम और ब्रिटिश -  इन तीन खानों में बांटने की संस्थानवादी इतिहासकारों के द्रष्टिकोण ने ही पैदा किया था सोमनाथ पर आक्रमण का सनसनीखेज इतिहास. रोमीलाजी ने बताया कि ब्रिटन के हाउस ऑफ कोमन्स में उस वक्त हिन्दुस्तान के गवर्नर जनरल ने गझनी से सोमनाथ के दरवाजे वापस लाने का प्रस्ताव रखा था. दरवाजे हिन्दुस्तान लाने के बाद आग्रा में रखे गये थे, बाद में मालुम पडा कि यह दरवाजे सोमनाथ के नहीं है. हाउस ऑफ कोमन्स में उस वक्त हूई डीबेट में महमुद के आक्रमण से हिन्दुओं पर हुए आघात की बात जानबूझकर उछाली गई थी. संस्थानवादी इतिहासकार हंमेशां यह बात साबित करना चाहते थे कि हिन्दु और मुसलमानों के बीच हंमेशां बैरभाव रहा है और कभी भी उनके बीच सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं थे. 

"there is a difference between historian and mythmaker," इस वाक्य के साथ रोमिलाजी ने अपने बहेतरीन प्रवचन का समापन किया. उन्हो ने कनैयालाल मुनशी को भी याद किया और कहा कि उन्हे इतिहास की कोई समज नहीं थी. मुनशी डुमा और ह्युगो से प्रभावित थे जो साहित्यकार थे, इतिहासकार नहीं थे. रोमिलाजी ने सोमनाथ के पुननिर्माण के दौरान नेहरु द्वारा तत्कालिन राष्ट्राध्यक्ष राजेन्द्रबाबु पर लिखे गये पत्र का भी उल्लेख किया और कहा कि नेहरु के हस्तक्षेप के कारण बाद में सोमनाथ के पुननिर्माण के लिये प्राइवेट ट्रस्ट बनाया गया था. कनैयालाल मुनशी की नवलकथा "जय सोमनाथ" रोमिलाजी ने पढी नहीं है, मगर कल साहित्य परिषद के हॉल में उपस्थित गुजरात के प्रमुख साक्षरों, जिन्हो ने यह नवलकथा पढी है, जानते हैं कि महमुद के आक्रमण से भी ज्यादा चौलुक्य वंश के राजा भीमदेव का मंदिर की देवदासी चौला के साथ किया गया व्यभिचार का रसिक वर्णन इस नवलकथा का प्रमुख हिस्सा है.     

1985 में इसी हॉल में गुजरात के प्रमुख साहित्यकारों ने के. का. शास्त्री जैसे आदमी को गुजराती साहित्य परिषद का अध्यक्ष बनाया था. के. का. शास्त्री ने अपना समग्र जीवन गुजराती साहित्य, संस्कृति, कला, समाज को हिन्दु-मुसलमान खानों में बांटने का उद्यम किया था. आज उसी हॉल में देश की एक प्रमाणिक और प्रमाणित विद्वान व्यक्ति द्वारा इतिहास के कुछ मिथकों का भ्रमनिरसन हुआ. क्या गुजरात के तथाकथित बुद्धिजीवी, पत्रकार, साक्षर, समाजसेवी अपनी भूलों को दोहराते रहेंगे?

रविवार, 23 दिसंबर 2012

कौन बनेगा दिल्हीपति


गुजरात सरकार का हर सरकारी दस्तावेज चील्ला चील्लाकर कहता है कि, "1991 में भारत सरकार द्वारा शूरू की गई उदारीकरण की नीति के सुफल गुजरात चख रहा है." तो फिर, भला तुम्हारी मनमोहन से क्या दुश्मनी है? वह जो काम दिल्ही में कर रहे हैं, वह आप गांधीनगर में कर रहे हैं. फिर भी आप दिल्ही जाना क्यों चाहते हैं? क्या ताता-बिरला-अंबाणी-मित्तल-एस्सार-अदाणी के तलवे चाटने में मनमोहन से भी अपने आप को आप ज्यादा कुशल समजते हैं?

हमें विकास नहीं चाहिए


हमें विकास नहीं चाहिए. हम हमारी मगन कुंभार की चाली में, शीहोरी के बीटी कोटन के खेतों में, जीनींग मिलों में, खेतो-खदानों में हमारी पसीने की कमाई खाते आये हैं. हम ही तो बनाते हैं और साफ-सूथरे रखते हैं, ये सारे ओवरब्रिज. आप सिर्फ एक काम किजीए. गुजरात के और देश के तमाम मंदिरो में एक वाल्मीकि-भंगी-महेतर को पुजारी बना दिजीए.

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

प्रधानमंत्रीपद - कौन लायक, कौन नालायक


बीजेपी देश के छ राज्यो में सत्ता पर है. छत्तीसगढ, झारखंड, गोवा, गुजरात, मध्य प्रदेश और कर्णाटक. बीजेपी पंजाब, बिहार, नागालेन्ड में एनडीए के घटक पक्षो के साथ सरकार में है. ओरीस्सा में बीजेडी ने बीजेपी को छोडकर अपने बलबूते पर सरकार बनाई. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तरांचल और अरुणचल प्रदेश में बीजेपी की पहले सत्ता थी. 

दूसरी तरफ, कांग्रेस आठ राज्यो में सत्ता पर है. दिल्ही, अरुणाचल, राजस्थान, मीजोरम, मणीपुर, मेघालय, आंध्र प्रदेश और हरीयाणा. कांग्रेस आसाम, उत्तराखंड, जम्मु और कश्मीर, केरल, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में युपीए के घटक पक्षो के साथ सरकार में है. 

देश के दो महत्वपूर्ण राज्यो में से, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु में बिन-बीजेपी, बिन-कांग्रेसी सरकारें है. कुल मिलाकर देश का यह राजकीय चित्र है. अब इस देश में एलायन्स युग है. कोई भी पक्ष अपने बलबुते पर केन्द्र में सरकार बनाने की क्षमता नहीं रखता. और इस हालात में गुजरात का कोई व्यक्ति चाहे वह गुजरात में अपने तरीके से कैसे भी सरकार चलायें, लोगों को विकास की परिभाषा समजायें, एक हजार लोगों को मरवाकर "अब शांति की स्थापना हो चूकी है" ऐसा मानें और सभी को मनवायें, चाहे कुछ भी करें, मगर ऐसा व्यक्ति इस देश का प्रधानमंत्री कैसे हो सकता है?

कल जब नरेन्द्र मोदी अहमदाबाद के खानपुर में बीजेपी के कार्यालय पर हूइ सभा को संबोधित करते हुए "पीएम, पीएम" के नारों के बीच अपना सिर हिलाकर जिस तरह से कह रहे थे कि "अगर आप कहते हैं तो मैं 29 तारीख को एक दिन के लिए दिल्ही जा आउंगा", तब "मन ही मन में लड्डु फुटे" वाला इस्तेहार देखने जैसा लग रहा था. अब तो यह लड्डु गुजरात की "छ करोड की जनता" के मन में फुट रहे हैं. पूरा दिन इलेक्ट्रोनिक मीडीया पर जो बहस चली, उसमें सबसे ज्यादा सटीक टीप्पणी एक कांग्रेसी नेता ने की कि "नरेन्द्र मोदी को अपनी जित के लिए इलेक्ट्रोनिक मीडीया का शुक्रिया अदा करना चाहिए. मीडीया ने गुजरात में बीजेपी का जो भी राष्ट्रीय नेता आया उसके मुंह में चुंगा ठुंसा दिया कि "बताईए, नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्रीपद के लिये लायक है या नहीं?" अब आप ही बताइए, चुनाव के दिनों में कौन ऐसा कहेगा, कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्रीपद के लिए नालायक है. 

दस साल पहले हमने इस आदमी पर एक कविता लिखी थी. "अगर मैं प्रधानमंत्री बन गया, दिल्ही की गद्दी पर बैठ गया, आनेवाली पीढियां याद करेगी, ऐसा दिखाउंगा करिश्मा." हम दस साल पहले इस आदमी की महत्वाकांक्षा को भांप गये थे. अब उसकी आकांक्षाओं को प्रदर्शित करने का एक बडा राजकीय मंच खडा हो गया है. क्या वाकइ में गुजरात भारत का भविष्य है?

वैसे तो गुजरात भारत की ही एक प्रतिकृति है. गुजरात और भारत की स्थिति में क्या फर्क है? दंगा भारत के हर कोने में होता है. गुजरात में भी होता है. गुजरात में दस साल से दंगा नहीं हुआ, क्योंकि बीजेपी सत्ता पर है. बीजेपी विपक्ष में होती, तो दंगा ही करवाती थी. हर रथयात्रा रक्तयात्रा होती थी. नरेन्द्र मोदी ने तो दंगों का, नरसंहार का वर्ल्ड रेकोर्ड कायम किया है. सवाल यह है कि ऐसे नृसंश हत्याकांड को अंजाम देनेवाली व्यक्ति को हम भारत के प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करेंगे?

नरेन्द्र मोदी अटलबिहारी बाजपेई नहीं है. 1975 में इमरजन्सी के दौरान बाजपेई की ईसी खानपुर इलाके में सभा हुई थी, जहां अभी बीजेपी का कार्यालय है. बाजपेई के वक्तव्य के दौरान मस्जिद से अझान की आवाज आई थी. पूरी पांच मिनट बाजपेई रूके थे. दस हजार से भी ज्यादा लोग बाअदब बैठे रहे थे. अझान खत्म होने के बाद बाजपेई ने अपना वकतव्य शुरु किया था. क्या यह बाजपेई का "मुस्लीम तुष्टिकरण" था? क्या यह बाजपेई का "स्युडो सेक्युलारीझम" था? शायद, बाजपेई का यह रूप उन्हे इस देश के प्रधानमंत्रीपद तक ले गया था. इसी बाजपेई ने मोदी को राजधर्म निभाने का इंगित किया था.  

इस देश के संविधान में "सेक्युलारीझम" शब्द लिखने के बाद अब शायद पहली बार इस शब्द का अर्थ समजने का और समजाने का वक्त आ गया है. गुजरात के चुनाव नतीजों के अर्थों को समज लेना चाहिए. मोदी ने कल अपने वकतव्य में जो कहा उसे ध्यान से सूने. उन्हो ने कहा " जिन्हो नें अस्सी के दसक में जातिवाद का जहर देखा है, वे लोग गुजरात में कांग्रेस का शासन लाना नहीं चाहते" यह बहुत महत्वपूर्ण वाक्य है. अस्सी के दसक में ओबीसी का आरक्षण बढाकर कांग्रेस ने जो जहर फैलाया था, मोदी उसकी बात कर रहे थे. 

मोदी के इस मंतव्य के साथ गुजरात का बमन, बनीया, पटेल, सवर्ण संमत है. मोदी के इस मंतव्य के साथ बमन-बनीया-पटेल-सवर्ण बिरादरी का बना पूरा संघ परिवार संमत है. मोदी के इस मंतव्य के साथ इसी बिरादरी द्वारा उकसाया गया और मुसलमानो से लडाया गया और लडते लडते पूरा का पूरा हताहत किया गया दलित, आदिवासी, ओबीसी संमत है. मोदी के इस मंतव्य के साथ इसी लडाई में पराजित हुआ, अपनी बाकी जिंदगी चैन से जिने की महेच्छा रखनेवाला मुसलमानों का बहुत बडा हिस्सा है. मोदी के इस मंतव्य के साथ गुजरात के वे तमाम लोग है, जो दलित-आदिवासी का शोषण करते हुए बनी इमारतों में खुली सेल्फ फायनान्स संस्थाओं में अपनी भविष्य की पीढियों के सुवर्णयुग का इन्तजार कर रहे हैं. मोदी के इस मंतव्य के साथ गुजरात के वे गांधीवादी भी है, जिन्हो ने "अस्सी के दसक का जातिवादी जहर देखा है" और जो दलित-आदिवासी-ओबीसी को कभी भी इस देश के शासन में हिस्सा देने के लिये तैयार नहीं है. 

2014 का चुनाव राहुल बनाम मोदी का होगा ऐसी घोषणा हो चूकी है. इस देश की जनता को मूर्ख बनाने की घोषणा हो चूकी है. जो लोग उदारीकरण, वैश्विकरण की नीतियां घडने में एक दूसके के साथीदार है, उसका अमल करने में भी एक दुसरे की मदद करते हैं, वही लोग एक नाटकीय चुनावी जंग में एक दूसरे पर किचड उछालेंगे, कमल खिलायेंगे, पंजा फैलायेंगे. सवाल यह है कि क्या हम इस नाटक के मूक और मूर्ख प्रेक्षक बनकर ही रह जायेंगे या कुछ करेंगे?