गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

क्या राज्य द्वारा किया गया भूमिपूजन बिनसांप्रदायिक है?



एनडीए के केन्द्रीय मंत्री शरद यादव पठानकोट में
सीवील एन्क्लेव का भुमिपुजन करते हुए (वर्ष 2001)


राम पुनियानी

पुलिस स्टेशनों और अन्य इमारतों जैसें कि सरकारी सार्वजनिक स्थलों पर हिन्दु देवों और देवियों की प्रतिमाएं, तसवीरें और प्रतीकों की उपस्थिति आम बात हो गई है. उसी तरह राज्य संचालित बसों में भी देवों और देवियों के तसवीरें होती है. यह सही है या गलत, इस के बारे में हमनें सोचना भी बंद कर दिया है. सामान्यरुप से हमें देखने को मिलता है कि राज्य के प्रोजेक्टों के लिये शिलान्यास हो तब बडे पैमाने पर हिन्दु विधि होती है. यह परंपरा एक प्रकार का रुटिन बन गई है और ज्यादातर लोग इस बारे में सोचतें भी नहीं है.

वह घटना याद करने जैसी है कि आजादी के बाद सभी विद्धानों ने सरकार की आधीअधूरी बिनसांप्रदायिकता की निदा की थी. पंडित नेहरु जब प्रधानमंत्री थे उस समय, केद्रीय प्रधानमंडल ने राज्य के पैसों से सोमनाथ मंदिर का निमार्ण करने की दरखास्त नामंजूर कर दी थी. इतना ही नही उस समय के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद को भारत के राष्ट्रपति के रुप में सोमनाथ मंदिर का उदघाटन नहीं करने की सलाह दी थी. सार्वजनिक सेवकों की पवित्र स्थलों की मुलाकातें माध्यमों की चकाचौंध से दूर, चुस्त रूप से अंगत मामला था. परन्तु अब समय बदल रहा है, ऐसा लग रहा है. राज नेता अच्छी तरह प्रचारित हुई विविध मुलाकातों के द्धारा दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये एक-दूसरे के साथ स्पर्धा में उतरे है. राज्य-प्रायोजित इमारतों के उद्घाटकीय समारोहो में ब्राह्मण पुरोहितों की उपस्थिति में शिलान्यास और भूमिपूजन की विधि होती है. और ब्राह्मण पुरोहित मंत्रो के उच्चारण द्धारा अधिभौतिक शक्तिओ का आहवान करने का श्रेष्ठ प्रयास करता है. इस परिस्थिति में गुजरात हाईकार्ट की नयी इमारत के शिलान्यास समारंभ में हुए भूमिपूजन और मंत्रोचारो के खिलाफ गुजरात के दलित कर्मशील राजेश सोलंकी (राजु) द्वारा की गई सार्वजनिक हित की अर्जी बिनसांप्रदायिक भूमिका को मजबूत करने की दिशा में एक कदम है. उपर्युक्त कार्यक्रम गुजरात के राज्यपाल, हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य सम्मानित अतिथिओं की उपास्थिति में हुआ था.

सोलंकी ने याचिका में ऐसी दलील की थी कि एक बिनसांप्रदायिक राज्य को धार्मिक अनुष्ठान नहीं करने चाहिये. यह अनुष्ठान भारत के संविधान के बुनियादी सिद्धांतो का भंग करता है. भारत का संविधान बिनसांप्रदायिक है. और संविधान ने राज्य और धर्म के बीच अंतर किया है. सोलंकी ने दलील की थी कि ब्राह्मण पुरोहितो द्धारा पूजा और मंत्रोच्चार से न्यायतंत्र उसका बिनसांप्रदायिक चरित्र गवां देगा.

आवेदक की बुद्धिवादी और बिनसांप्रदायिक याचिका को अनुमोदन देने के बजाय अदालत ने याचिका खारिज कर दी. यहां तक कि आवेदक के इरादों के प्रति शंका रखकर उसे रु.20,000 का जुर्माना भरने को कहा. न्यायमूर्ति ने यहां तक भी कहा कि निर्माणकार्य के समय भूमि की खुदाई की जाती है. यह पृथ्वी के लिये बोझ समान है. पृथ्वी से माफी मांगने के लिये और निमार्णकार्य सफल हो इसलिये भूमिपूजन किया जाता है. और यह सब सभी मनुष्यों के हित के लिये किया जाता है, क्योंकि यह ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘सर्वजना सुखिनो भवन्तु’ के हिन्दु मूल्यो के साथ सुसंगत है.

इस केस में हाईकोर्ट के द्धारा की गई दलीलों में भी भ्रांति है. सबसे पहले देखा जाये तो, निमार्ण करने के लिये धरती की पूजा करनी चाहिये, यह सिद्धांत सम्पूर्णरुप से हिन्दु सिद्धांत है. अन्य धर्म के लोग उनके निमार्णकाम के कार्यो को शुरु करने से पहल अलग-अलग अनुष्ठान करेंगे, जैसे कि ख्रिस्ती पादरी होली वोटर छिडकेगा, नास्तिक लोग पर्यावणीय संतुलन के बारे में ज्यादा चिंतित होगे और भौगोलिक के साथ ही स्थापत्य संबंधी पहलूओं का पूरा ध्यान रखा जाता है या नहीं उसका ध्यान रखेंगे. 

राज्य की कामगीरी के लिये किसी एक धर्म की परंपराओं का कानूनी बचाव भारतीय संविधान के बूनियादी सिध्दांतों के भंग से विशेष कुछ भी नहीं है. भारतीय संविधान इस बात को निश्चित करता है कि राज्य सभी धर्मो से समान अंतर रखेगा. और सबके साथ समान व्यवहार करेगा. एस. आर. बोम्माई केस में यही बात दोहराई गई है. एस. आर. बोम्मी केस में बिनसंप्रादयिकता का अर्थ इस प्रकार बताया गया है – 1) राज्य का कोई धर्म नही है, 2) राज्य धर्म से अलग है, और 3) राज्य किसी भी धर्म को प्रोत्साहन नहीं देगा या फिर किसी धर्म से पहचाना नही जायेगा.

यह सच है कि बहुत से धर्मो के नैतिक मूल्यो को व्यापकरुप से समाज स्वीकार कर सकता है, जैसे कि" वसुधैव कुटुंबकम"(हिन्दु धर्म) या "सभी मनुष्य एक दूसके के भाई है" (इस्लाम) या "लव धाई लेबर" (ख्रिस्ती). परन्तु जहां तक धार्मिक कर्मकांडों (अनुष्ठान) की बात है, वह एकदम अलग चीज़ है. सभी धर्मों का हार्द कर्मकांड नहीं, बल्कि नैतिक मूल्य होते हैं. लोग धर्म को कर्मकांडों से पहचानते हैं. यह सामाजिक ज्ञान की बात है और विविध प्रवाह इस पर अलग-अलग अभिप्राय रखेंगे.

मुख्य मुद्दा यह है कि कबीर, निझामुदीन ओलीया और गांधी की कक्षा के संतों ने धर्म के नैतिक पहलूओं पर भार रखा था. जब तक धर्म के अमल का सवाल है, लोगों को अपनी सामाजिक तथा निजी परंपराओं, का अनुसरण करने में कोई पाबंदी नहीं है. विविध धर्मों की यह सामाजिक तथा निजी परंपराएं एक दूसरे से इतनी अलग है कि एक ही धर्म के विविध संप्रदायों की भी अलग धार्मिक परंपराएं होती है.   

इस तरह का फैंसला संविधान के अनुच्छेद 51(ए) की संपूर्ण विरुद्ध में है. अनुच्छेद 51(ए) समाज में बुद्धिवादी चिंतन को प्रोत्साहन देने का आदेश देता है. राज्य द्धारा किसी निश्चित धर्म का धार्मिक अनुष्ठान हमारे संविधान हार्द के विरुद्ध में है. और ज्यादातर किस्सो में तो श्रद्धा और अंधश्रद्धा के बीच पतली अंतररेखा है. अंधश्रद्धा समाज को प्रतिगामी दिशा में ले जायेगी. आज हम जानते हैं कि जब तक निमार्णकाम का स्थान योग्यरुप से पंसद ना किया जाये, भौगोलिक और निमार्णकाम के पहलूओं को वैज्ञानिकरुप से काम में ना लिया जाये तो, दुर्घटनाये होती है. इसलिये सरकार ने निमार्णकाम के नियम बनाये है, जिसका पालन होना जरुरी है हमने देखा है कि ऐसे नियमो के भंग से दुर्घटनाये होती है. 

हमारी अदालतों को चाहिए कि वे किसी एक वर्ग की प्रथाओं का राज्य प्रथा के रुप में स्वीकार हो ऐसा जटीलतापूर्वक साबित करने के बजाय संविधान के उपर्युक्त पहलूओं को प्रोत्साहित करें. राष्ट्रपिता गांधीजी ने कहा है कि "अपने समग्र जीवन के दौरान जिसके निमार्ण के लिये मैंने काम किया है ऐसे भारत देश में सभी मनुष्य समान है और धर्म कोई भी हो, राज्य संपूर्णरुप से बिनसंप्रादयिक होना चाहिए. (हरिजन, 31 अगस्त, 1947) और, धर्म राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं है, परन्तु मनुष्य और ईश्वर के बीच व्यक्तिगत मामला है. (ईसी में, पेईज 90) और "धर्म हर व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इस की राजकारण के साथ अथवा राष्ट्रीय मामलों के साथ मिलावट बिल्कुल नही होनी चाहिये. (ईसी में. पेइज 90)

पिछले कुछ दसकों में हिन्दु धार्मिक विधि राज्य की प्रथा के रुप में स्वीकृत बनी है. और इसके लिये अब पुनःविचार करने का समय हो गया है.

(
Issues in Secular Politics III March 2011)






वन बिलीयन राइझिंग और मनुस्मृति

इस देश में ‘वन बिलीयन राइझिंग’ वेलेन्टाइन डे पर नहीं होना चाहिए, बल्कि मनुस्मृति का दहन करके होना चाहिए, क्योंकि ‘दबंग’ मनु ने लिखा है,

"पीले वर्ण वाली, अधिक अंग वाली (जैसे छ: अंगुली), जिस के शरीर पर कुछ भी लोम न हो, जिस के शरीर पर बडे-बडे लोम हो, व्यर्थ बोलने वाली, बिल्ली के जैसे पीले नेत्र वाली तथा जिस कन्या का नाम नक्षत्र (रेवती, रोहिणी, इत्यादि), नदी (गंगा, यमुना, इत्यादि), पर्वत (विंद्याचला इत्यादि), पक्षी (कोकिला, हंसा, इत्यादि), वृक्ष (चमेली, मालती, इत्यादि) पर हो, या जिस कन्या का नाम भीषण (कालिका, चंडिका, इत्यादि) हो, उससे विवाह न करे."

मल्लिका साराभाई, आपने मनुस्मृति पढी है?