गुजरात
के नरोडा पाटीया नरसंहार, जिसमें 93 मुसलमानों की हत्या हुई थी, के अभियुक्तों में
एक भी दलित नहीं है. इससे पहले सरदारपुरा, ओड तथा दिपडा दरवाजा के हत्याकांडों में
से किसी भी हत्याकांडों में एक भी दलित अभियुक्त नहीं था. यह तमाम जजमेन्ट अब सब
के सामने हैं और 2002 के नरसंहार में दलितों को बलि का बकरा बनाने की आरएसएस,
वीएचपी, बजरंग दल तथा बीजेपी की साझा रणनीति की पोल खुल चुकी है. निर्दोष लोंगों
की निर्मम हत्याओं को योजनाबद्ध अंजाम देने के बाद विश्व हिन्दु परिषद के तत्कालीन
अद्यक्ष के. का. शास्त्री ने रीडीफ डोट कोम को दिए एक साक्षात्कार में दंगों में
दलितों की भूमिका की जानबूझकर प्रशंसा की थी. और के. का. शास्त्री के इस दावे को
सच्चा पुरवार करने के एकमात्र मकसद से पूरे अहमदाबाद शहर में 700 से ज्यादा दलितों
की गिरफ्तारी की गई थी. तत्पश्चात हुई घटनाओं से अब साबित हो चुका है कि उन
गिरफ्तार दलितों में से एक भी दलित इन निर्मम हत्याकांडो से जुडा नहीं था. इन सारे
तथ्यों का मैंने मेरी किताब "ब्लड
अन्डर सेफ्रन" में निरुपण किया है.
(लिन्क: http://bloodundersaffron.blogspot.in)
2002 के बाद लघुमती-विरोधी हिंसा में दलितों की
भूमिका को लेकर एक बडा विवाद उत्पादित किया गया. सेक्युलारीझम का हर नुमाइंदा
गुनहगार की, बलि के बकरे की (गुजराती में जिसे होली का नालीयेर कहते है) तलाश में
था. यह हमारा दुर्दैव था कि नरसंहार के महाग्रंथ "क्राइम अगेन्स्ट ह्युमेनीटी" में दलितों तथा ऊंची
जाति-पीछडी जातियों के हत्यारों के बीच कोई फर्क नहीं किया गया था.
क्राइम अगेन्स्ट ह्युमेनीटी
(गुजरात में नरसंहार की तपास – निष्कर्ष एवम् रेकमेन्डेशन्स) ग्रंथ कहता है, "दलितों
तथा वाघरी और छारा जैसे डी-नोटीफाइड ट्राइब्स के सदस्यों शहरी क्षेत्रों में हिंसा,
खास करके बलात्कार, हत्याएं और हिंस्रता की ज्यादा निर्मम वारदातों में सक्रिय थे.
इस पेटर्न के पीछे रही ट्रेजेडी से वह तथ्य उजागर होता है कि सवर्ण हिन्दु समाज के
प्रभावी और वर्चस्ववाले वर्गों ने दबे कुचले वर्गों में फुट डाली है और दलित, वाघरी,
छारा को मुसलमान लघुमती के सामने खडा कर दिया है. शहरी गुजरात में दलित और मुसलमान
अगल बगल में रहते हैं. नीची जातियां को हिंसा के ऐसे प्रकार में सामिल होने के लिए
प्रशिक्षित की गई थी कि जिससे हिंसा करनेवाले खुद अमानवीय हो जाय. ट्रीब्युनल ने
ऐसे साक्ष्य को रेकोर्ड किया है, जो बताते हैं कि खास करके पीछले दो सालों में
गुजरात में बजरंग दल बेरोजगार दलित युवाओं को प्रति माह रूपिया 3-5,000 तनख्वाह
पगार देकर ऐसे केम्पों में आने के लिए लुभा रहा था, जहां मुसलमानों के खिलाफ
भडकाने का कार्य मुख्यतया होता था." (पेइज 35, खंड 2, पेटर्न्स ऑफ वायोलन्स,
क्राइम अगेन्स्ट ह्युमेनीटी).
2002 में तीस्ता सेतलवाड के साथी
रइसखान ने तीस्ता के कहने पर इन दो ग्रंथो का गुजराती में अनुवाद करने के लिए मुझे
बिनती की थी. इन दोनो ग्रंथो के 492 पन्नों का अनुवाद करते वक्त मैंने जाना कि
उसमें दलितों की भूमिका बिना कोई सामाजिक पृष्ठभूमि समजे रखी गई थी. बाद में जब
तीस्ता कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज तलब करने काउन्सील फोर सोशल जस्टीस की ओफीस पर रइसखान
के साथ आई थी, तब मैंने उनके साथ यह मुद्दा उठाया था. तीस्ता ने कुबुल किया था कि
यह गलती से हुआ था. कभी उमदा उद्देशों के साथ हुए कार्यों का नतीजा अनिच्छनीय होता
है. 2002 के नरसंहार में कन्सर्न्ड सीटीझन्स ट्रीब्युनल ने बहुत अच्छी भूमिका
नीभाई थी, यह बात निर्विवाद है. लेकिन, ट्रीब्युनल को टेस्टीमनी के लिए एक भी दलित
नेता-कार्यकर्ता नहीं मीला था, यह भी एक हकीकत है. इस ऐतिहासिक वृतांत में दलितों
के बारे में ऐसा पूर्वग्रहयुक्त निरुपण किया गया था कि जिसके चलते देश-विदेश में
दलितों की छवी काफी खराब हुई थी. सच पूछो तो ट्रीब्युनल को गुजराती साहित्य परिषद
की टीका करने की जरूरत थी. गुजराती साहित्य परिषद गुजरात के शीर्षस्थ साक्षरों की
प्रतिष्ठित संस्था है, जिसने के. का. शास्त्री जैसे घटीया, सांप्रदायिक इन्सान को
साहित्य परिषद का अध्यक्ष बनाया था. और वह भी उस समय जब शास्त्री विश्व हिन्दु
परिषद के अध्यक्ष की हैसियत से अखबारों में स्टेटमेन्टों की बौछार करके दंगों को
भडका रहा था. इस प्रकार गुजरात के साहित्यकारों ने वीएचपी के पापों को कानूनन उचित
ठहराया था. हमने उस वक्त के. का. शास्त्री की नियुक्ति के खिलाफ परिषद की इमारत के
सामने विरोध प्रदर्शन भी किया था.
दर असल, सच्चाई कुछ और थी. 1981 से
लेकर 1991 के दसक में दलितों के वे तमाम मोहल्ले, जो मुसलमानों से घिरे थे,
अहमदाबाद के नकसे से गायब हो चूके थे. शाहपुर का वणकरवास (प्रख्यात उर्दु कवि जयंत
परमार की जन्मभूमि), महेसाणीया वास, जमालपुर खांड की शेरी, नाडीया वास, ताजपुर वास,
जमालपुर पगथीयावाला महोल्ला (कांग्रेस के धारासभ्य तथा मंत्री मनु परमार की
जन्मभूमि, जिसे बीजेपीवाले मियां मनु कहते थे) खत्म हो गए. गुजरात में हिन्दु
फासीवाद के प्रादुर्भाव ने दलित-मुसलमान संबंधो में दरार पैदा की थी और दोनों
समुदाय इस फासीवाद के शिकार थे. (संदर्भ: ब्लड अन्डर सेफ्रन)
गुजरात के दलित आरएसएस की कठपुतली
नहीं है. हमने हमारी लडाइयां अपने तरीके से लडी है. 1981 में अनामत-विरोधी उपद्रव
का सामना, 1985 के सचिवालय में रोस्टर-विरोधी आंदोलन के दौरान 4 लाख लोगों की
ऐतिहासिक रैली, गुजरात समाचार का बहिष्कार, 1995 में रमाबाई कोलोनी हत्याकांड के
खिलाफ विरोध प्रदर्शन – दलितशक्ति के कुछ उदाहरण मात्र है. 1990 के बाद एनजीओ का
पेइड-एक्टीवीझम तथा संघ परिवार का पेइड-कम्युनालीझम शरू होने से दलित आंदोलन को
भयानक नुकसान हुआ है. लेकिन, दलितो और उनके साथ गुजरात के सभी वंचित समुदायों को
विश्वास है कि आनेवाले दिनों में आकाश का रंग ज़रूर बदलेगा.
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