आजकल मैं एक उपयान्स लिख रहा हूँ. "व्हाइट एलीफेन्ट एन्ड अधर स्टोरीज
फ्रोम गुजरात". यह ओक्सफोर्ड का प्रोजेक्ट नहीं है.
एक साल में पूरा हो ही जायेगा ऐसा दावा मैं नहीं कर सकता. मुझे हाथी में दिलचश्पी
है. यह बहुजन समाज पार्टी का चुनाव प्रतीक है इसलिये नहीं. बचपन से ही हाथी को
लेकर बहुत सी कल्पनायें मेरे मन में रही है. बचपन में आबाद डेरी का ट्रक हमारे
मुहल्लें से गुजरता था तब हम चिल्लाते थे, "हाथी आया, हाथी आया". हाथी. कोई भी चीज़ विशाल हो, कदावर
हो, भारी हो उसे हम हाथी कहते थे. जैसे जैसे सरकार और जनतंत्र, परियोजनाएं और अमलदारों
के बारे में हमारी जानकारी बढती गई वैसे वैसे "हाथी को पालना" मुहावरे का वास्तविक अर्थ हमारी छोटी
सी समझ में आने लगा.
छ करोड गुजरातीओं ने एक हाथी पाला है.
दस साल से. ये हाथी माइन्डब्लोइंग (दिमाग काम करना बंद कर दे वैसी?) बातें करता है. आनेवाले एक साल में
गुजरात देश को बिजली सप्लाई करेंगा. गुजरात अमरिका के साथ स्पर्धा करेंगा वगैरह वगैरह.
कांग्रेस के राज में एससी, एसटी, ओबीसी, बक्षी पंच, आरक्षण, गरीबी जैसे गंदे शब्दों
को सुन सुनकर उब चुकी गुजरात की डायनेमिक, वाइब्रन्ट सवर्ण प्रजा को हाथी की बातों
में इतनी मजा पड गई है कि पूछो ही मत.
थोडे दिन पहले यह हाथी उपवास पर बैठा
था (आपको हंसी आएगी) हाथी और उपवास? थोडा विपरीत लगेगा? लगता होगा. हाथी अब गांधीवादी हो गया
है. गांधीजी की तरह ही हाथी की भी पब्लिक लाइफ है. हर हाथी की होती है. इस देश में
सिर्फ पब्लिक की ही लाइफ नहीं है. हमारे हाथी की सिर्फ पब्लिक लाइफ है. प्राइवेट
लाइफ नहीं है. (वाइफ उनकी महेसाणा में है, इसके बारे में हम कुछ कहना नहीं
चाहेंगे.)
खेर, हाथी ने उसके पैरो तले कुचल गए
कुछ क्षुल्लक जीवों की याद में (उसके दावे के अनुसार) 36 सदभावना उपवास किया.
गुजरात के 70-75 प्रतिशत परिवारों में से हर परिवार में से एक सदस्य ने (उसके दावे
के अनुसार) इस उपवास में भाग लिया. यानि कि 18,000 गांवो में से 50 लाख से भी
ज्यादा लोंगो ने भाग लिया. 15 लाख लोंगो से हाथी ने हाथ मिलाया है (या सूँड मिलाई).
पूरी दुनिया के पब्लिक लाइफ में यह एक रेकोर्ड है, ऐसा उसका दावा है. 1.5 लाख
महिलाओं सहित 4.5 लाख लोंगो ने हाथी के साथ उपवास किया है. (गुजरात में 75 लाख लोग
स्थुलता से पीडित है, उसे देखकर लगता है कि यह आंकडे अभी भी कम है). 40,000
तिथिभोजन हुआ, जिसमें 42 गरीब लाख गरीब बच्चें तृप्त हुए. (सूँड की जगह दाढी
रखनेवाला एक बाबा ने एक साल पहले अमदाबाद में ऐसे ही एक अन्नकुट की आयोजन किया था).
गुजरात और गरीबी? ऐसा प्रश्न तो कभी पूछना ही नहीं चाहिए.
गप्पी की वेबसाइट (नमोलीग डोट कोम) क्या कहती है, जरा ध्यान से पढें. ""There are different groups of such people and
each group requires a special way to deal with. Going to the root of the
problems they face, his empathetic heart came out with the steps like issue of
roaming ration cards, roaming school cards, insurance cover for 3 lac
handicapped, insurance cover for 12.5 million school children, special housing
colony for the snake charmers, betterment of the kite preparing community and
several other awe-inspiring ideas. The fact that Gujarat ranks first in the
country in the implementation of 20 point programme for poverty abolition for
the last four years in a row, speaks a lot beyond ranks and numbers. As per the
estimate of the Planning Commission of India, Gujarat will remain at the top in
achieving the targets of poverty abolition. In fact, the government has already
provided Housing to 46,263 below poverty line families at the cost of Rs.
13672.94 lacs.''
इस लंबे चौडे फकरे को ध्यान से पढें.
हाथी के ह्रदय के लिये कितने लज़ीज़ शब्दों का प्रयोग हुआ है. हीज एम्पेथेटिक
हार्ट. करुणासभर ह्रदय. गोईंग टु धी रूट ऑफ धी प्रोब्लेम्स, "प्रश्नों की जडों तक जाकर" उन्होंने कैसे कदम उठाया है? रोमिंग राशन कार्ड, रोमिंग स्कूल
कार्ड, तीन लाख हेन्डिकेप्ड के लिये बीमा योजना, सवा करोड बच्चों के लिये बीमा,
मदारीओं (स्नेकचार्मर्स) के लिये खास आवास योजना, पतंग बनानेवाले समुदाय की भलाई
के लिये योजना...........
आसमानी रंग के कितने रोमिंग राशन कार्ड
सरकार ने इश्यु किये?
श्रम विभागे ने 2010 में हमारी एक आरटीआई के जवाब में कहा कि उन्होंने स्थालंरित
मजदूरों या उनके बच्चों का सर्वे पिछले दस सालों में नहीं किया है. सरकार के पास
इसका कोई आंकडा नहीं है. अखिल गुजरात नेत्रहीन संघ ने ओक्टोबर महिने में विद्या
सहायको की नियुक्ति में नेत्रहीनों को कायदा के अनुसार क्वोटा दिलाने के लिये बहुत
बडा आंदोलन किया. पतंग बनानेवाले समुदाय के लिये हाथी ने कौन सी परियोजना बनाई है? पतंगोत्सव? हाँ, रीवर फ्रंट पर पतंगों का मार्केटींग
किया. परन्तु उसके लिये (रिवर फ्रंट प्रोजेक्ट के) रू. 2500 करोड आपको ज्यादा नहीं
लगते?
गुजरात सरकार का दावा है कि 46463
बीपीएल परिवारों के लिये रू.13,672.94 लाख के खर्च से आवास बनाये गये. हमने गुजरात
हाउसिंग बोर्ड की वेबसाइट का अभ्यास किया. बोर्ड ने अभी तक कमजोर वर्गों
(इकोनोमिकली वीकर सेक्शन्स-इडब्ल्युएस) के लिये 49,083 घर बनाये. उसमें 90 प्रतिशत
घर अहमदाबाद (94,480), राजकोट (6585), जामनगर (2328), वडोदरा (7493), भरूच (1446),
सूरत (2851), भावनगर (7973), इन सात नगरों में बने. जहां सबसे ज्यादा जरूरत है
वहां डांग, दाहोद, साबरकांठा, पंचमहाल, नवसारी में एक भी घर नहीं बना. आदिवासियों
के गले में केसरी रंग का पट्टा पहनानेवाले इन आंकडो को अपने दिमाग में भर ले.
दूसरे आदिवासी तहसीलों में नर्मदा (24), वलसाड (72), बनासकांठा (110) में बने घरों
की संख्या एकदम मामूली है. पाटण (385), आणंद (236), पोरबंदर (157), सुरेन्द्रनगर
(836), महेसाणा (590), खेडा (1042), जूनागढ (90), गांधीनगर (769), कच्छ-भूज (264).
गप्पी को गांवों में अच्छा नहीं लगता. इसमें दलितों के लिये कितने घर बने होंगे
उसका अंदाजा लगना मुश्किल है.
बीजेपी के प्रदेश प्रमुख पुरूषोतम
रूपाला के मतक्षेत्र अमरेली के राजुला तहसील के कोटडी गांव में दलितों को दस सालों
तक घरों के लिए छोटे से, सिर्फ दो एकर के, प्लोट के लिये लडना पडा. 1990 में ग्राम
पमंचायत द्वारा इन्दिरा आवास योजना तहत प्लोट दिया गया था, परन्तु नपाई नहीं हो
रही थी. प्रशासनिक तंत्र में कार्यरत और राजुला में कभी तहसीलदार रह चुके एक सवर्ण
साहित्यकार मित्र ने हमें बताया कि, "कलेक्टर कचहरी में (दलितों के लिए
इस्तेमाल किया जानेवाले घिनौने दो शब्दो का उच्चारण करके) खुल्लेआम कहा जाता था कि
इन लोगों की जमीन की नपाई कैसी?" (कोटडी की लडाई के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए 'हंबग शास्त्र, पुराण, वेद; काल कोटडी ना कोठा भेद' लेख http://gujaratdalitrights.blogspot.in)
गुजरात में दलितों की गरीबी की तह
ढूंढने के लिये हमने कुछ प्रयास किये हैं. 2009 में अहमदाबाद के राजपुर-गोमतीपुर
की 20 चालीओं के 1052 परिवारों के, 4026 विद्यार्थीओं के सर्वे में मालूम पडा कि
2157 (54.11 प्रतिशत) दलित विद्यार्थी दसवीं कक्षा से आगे पढ ही नहीं पाते. बीस
साल पहले यहां का एक दलित लडका आईएएस बना था, अब ग्रेज्युएट भी बनना मुश्किल है. ('भगवा नीचे अंधारु' http://gujaratchildrights.blogspot.in). लठ्ठाकांड में मारे गये मजुरगांव के दलित
परिवारों की परिस्थिति का हमने सर्वे किया था, उसमें मालूम पडा कि मरनेवालों में ज्यादातर
लोग बीस से पच्चीस साल के थे, वे दाणीलीमडा की डाइंग-प्रीन्टींग की इकाइयों में
मजदूरी करके महिने में चार हजार कमाते थे. भयानक मंहगाई के बीच दो छोर एक करने की कुढ़न
कहें या वाईब्रन्ट गुजरात की चकाचौंध देखकर हो रही निराशा कहें. कुछ भी हो, उन्होंने
जहरीले लठ्ठे को पीकर मोत को गले से लगा लिया. आज उनकी विधवा युवान पत्नियां उनको
मिलते पैसे से आधे पैसे में (मात्र दो-ढाई हजार में) उसी कारखानों में जातिय शोषण
के जोखिम के बीच काली मजदूरी करती है. बच्चे पढने की जगह मजदूरी करते है. बहरहाल
गुजरात में नशाबंधी बरकरार है.
टाटा सोश्यल इन्स्टिटयूट ने सिर पर
मैला उठानेवालें परिवारों का सरकार की तरफ से सर्वे किया, सरकार ने उस आंकडों का
स्वीकार नहीं किया और संस्था को सर्वे की कामगीरी का पैसा भी नहीं दिया. ये तो
प्रसिद्ध बात है. परन्तु कम प्रसिद्ध बात तो यह है कि सिर पर मैला उठानेवाले
परिवारों के पुन:स्थापन
के लिये रूपया 10 करोड भाजप के राजकीय एजन्टो ने खर्च कर डाले. गांधीनगर की वापकोस
संस्था ने इसके मूल्याकांन का काम हमें सौंपा, परन्तु प्रारंभिक अवलोकन में जब पता
चला कि पैसे वाकइ में मैला उठानेवाले तक पंहुचे ही नहीं कि तुरंत ही वापकोस ने मूल्यांकन
करने का काम हमारे पास वापस ले लिया. मिशाल के तौर पर, उस समय अहमदाबाद में 500
लाभार्थी बताये गये.
पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल ने
वर्तमान शासन में पटेल भी भयभीत है ऐसा सुरत में कहा उसके पश्चात दूसरे ही दिन पटेल
समाज किसी आरक्षण का मोहताज नहीं ऐसा कहते हुए नमो ने भी खोडल धाम में उसी तर्क को
दोहराया. दोनों ने आरक्षण के प्रति अपनी नापसंदगी जाहिर की थी. परन्तु उन्हो ने पटेलों
की प्रगति के पीछे ढेबरभाई के जमीन कायदे की अहेमियत भूला दी. पटेल उनकी मां की
कोख से जमीन लेकर नहीं आये थे. लेन्ड टी धी टीलर्स कानून के अमल ने उन्हें जमीनें
दिलाई. जबकि दलितों के लिये खेती जमीन टोच मर्यादा कानून का अमल ही नहीं हुआ. कांग्रेस
और भाजप, दोंनो पक्ष दलितों को जमीन नहीं देने की बात पर एकमत है. इस कायदे के अमल
के लिये हमारी लडाई चालू है. (इकोनोमिक एन्ड पोलिटिकल वीकली में डॉ. आनंद तेलतुंबडे
का लेख, फ्रोम धी अन्डरबेली ऑफ स्वर्णिम गुजरात, http://dalitrightsgujarat.blogspot.in)
पंचमहाल जिल्ला के शहेरा तहसील के एक
गांव में बीस साल की दलित कन्या को जुलाई 2001 में बीस दिनों तक अलग अलग जगहों
(उसमें से एक स्थान सरकारी आंगनवाडी) पर कैद करके सामूहिक बलात्कार करनेवाले ग्यारह
अपराधीओं के खिलाफ वह लडकी पुलिस स्टेशन में फरियाद लिखवाकर सही करे उसके पहले ही भाजप
की एक महिला आगेवान गाडी में पुलिस स्टेशन आकर उस दलित युवती का हाथ पकडकर ले जाती
है; ये सभी घटनायें स्टेशन डायरी में नोंध
की गई हो और एफआईआर फाड दी जाती है; दलित युवती को गोधरा शहर के नारी
केन्द्र में भेजा जाता है;
वहां भी दिये निवेदन को जिल्ला की भाजप की महिला आगेवान फिर से आकर फाड देती है; नारी केन्द्र की संचालिका जिल्ला
पुलिस अधिकारी को लेखित में फरियाद करती है; चार दिन बाद दूसरे पुलिस स्टेशन में
आकर दूसरी एफआईआर लिखवाये तब पहले की लिखवाई गई एफआईआर में लिखे गये चार आरोपीओं
के नाम निकाल दिया जाये और ये चारों भाजपा के सरपंच-आगेवान हो; प्रथम एफआईआर को फाड देनेवाले पीएसआई
को जिल्ला का पुलिस अधिकारी सस्पेंन्ड करे उसके पहले सभी आरोपीओं को एक के बाद एक
को कोर्ट में पेश करके जमानत पर छोड दिया जाये; कोर्ट में रजु हुई चार्जशीट में भाजपा
की उस महिला आगेवान का नाम साक्षी के रूप में हो और समग्र घटना के बारे में पुलिस
विभाग अब ऐसा कहेता है कि ये तो बहुत पुरानी बात है. गांधीनगर का गप्पीदास इस घटना
के विषय में क्या कहेना चाहता है?
राजकोट में 14 अप्रैल को बाबासाहेब
आंबेडकर के प्रतिमा को तोड देने की अफवा फैलाई गई ताकि दलितों को मुसलमानों से
संघर्ष हो जाय. फिर दलितों की हड्डियों को तोडकर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया.
तत्पश्चात् स्थल पर आई गीता जौहरी फिर से प्रतिमा को यथास्थान पर रख देती है. घटना
से पांच किलोमीटर दूर गांधी होस्टल में रहते दलित विद्यार्थियों पर मालवियानगर की
पुलिस टूट पडी, उनके हाथ पांव तोड डाले, उन पर एफआइआर करे, दूसरे दिन दलितों की गुंडागीरी जैसी खबरों से
अखबार भर गये. निर्दोष विद्यार्थियों पर हुए एफआरआई को क्वोश करवाने के लिये हम हाईकोर्ट
में गये तो जजसाब ने कहा, "गुंडागीरी करते हो और हाईकोर्ट में आते
हो." अफसोस के साथ कहेना पडता है कि इस गप्पी
ने दलितों को कहीं का नहीं रखा.
गुजरात में भाजप ने सत्ता हांसिल करने
के लिये, कांग्रेस का किल्ला तोडने के लिये दलितों को ऊंट की तरह आबाद इस्तेमाल
किया. गोधराकांड के बाद इस व्यूहरचना ने नग्न तांडव किया. कोमवाद के गुड पर पडे
दलित चींटों को गिन-गिन कर जेल में बंद कर दिया. (ब्लड अन्डर सेफ्रन, http://bloodundersaffron.blogspot.in) भाजप को
समर्थन देने की भयानक कींमत दलितों ने चुकाई है. पिछले बीस सालों में मुस्लिम
बहुमती से घिरे दलितों के पच्चीस महोल्लें आज खाली हो गये है. मुस्लिम नेतागीरी ने
भी इस मामले में बेवकूफी की है. आज गप्पी गर्व से कहता है, गुजरात में से जातिवाद
और कोमवाद का हमने नाश किया है. (अर्थात् दलितों और मुस्लिमों की नेतागीरी का नाश
किया).
(ता. 5 मार्च, 2012, इन्साफ की डगर पर कार्यक्रम अंतर्गत दिया गया वक्तव्य)
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