1981 के आरक्षण-विरोधी दंगो
से ले कर 2002 के गोधरा-कांड के बीच के इक्कीश बरसों में किस तरह गुजरात में संघ
परिवार ने अपनी ज़हरीली साज़िशों को अंजाम दिया, किस तरह गुजराती अख़बारों ने
प्रारंभ में दलित-विरोधी और बाद में मुसलमान-विरोधी दुष्प्रचार जमकर किया, किस तरह
गुजरात का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग पहले हिन्दु सांप्रदायिकता का प्रच्छन्न और बाद
में खुल्लंखुल्ला समर्थक बना - इन सारी
बातों का कभी एक इतिहासकार के रूप में तो कभी एक संवेदनशील नागरीक की हैसियत से
वालजीभाई पटेल ने उनके 'दलितमित्र' पत्रीका में निरूपण किया. उनके सभी लेखों का चंदु महेरीया
ने संपादन किया और वे 'कर्मशील की कलम से' पुस्तक में ग्रंथस्थ हुए.
गुजरात में पीछले दस साल
से सेक्युलारीज़म के नाम पर या उसके खिलाफ बहुत सारे बचकाना क्रियाकलाप होते रहे
हैं, अख़बारों में निवेदन आते रहे हैं, बाहर से जो लोग आते हैं, उनके आगे गुजरात
का बेहुदा, गलत चित्र खडा किया जाता है. ऐसे समय में 'कर्मशील की कलम से' किताब ऐतिहासिक, पथदर्शक लेखों का एक ऐसा बहेतरीन संग्रह है,
जिसका दस्तावेजी मूल्य इस प्रकार की किसी भी किताब से कम नहीं है.
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