रविवार, 6 मई 2012

माइग्रन्ट विरुद्ध वाइब्रन्ट



'वाइब्रन्ट' गुजरात की चकाचौंध की जिस कहानी सांप्रत गुजरात के शासकों द्वारा बार बार दोहराई जा रही है, उस कहानी को अंजाम देने के लिए बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ, उत्तरप्रदेश, राजस्थान के हजारों, लाखों 'माइग्रन्ट' मजदूरों ने अपनी जिंदगियों में कितना अंधेरा झेला है, और जिस 'पावर-सरप्लस' गुजरात की डींगे लगाई जा रही है, उस गुजरात की समृद्धि के पीछे झारखंड, छत्तीसगढ की कोयले की खदानों का निरंकुश उत्खनन कितना जिम्मेदार है, यह सवाल आज सूरत में बुलाए गए बिहार शताब्दी उत्सव के आयोजकों को पूछने जैसा है.

तथाकथित 'पावर-सरप्लस' गुजरात आज 18,000 मेगावोट बीजली पैदा करने की स्थिति में है, ऐसा 'पायोनियर' से बात करते हुए गुजरात के पावर-पेट्रोलीयम सचिव पांडीयन ने कहा. उसमें 13,500 मेगावोट बीजली थर्मल पावर स्टेशनों में बनती है. देश की 70 फीसदी बीजली थर्मल पावर स्टेशनों से आती है, जो बीजली पैदा करने के लिए कोयले का इस्तेमाल करते हैं. भारत में आज 267 अरब टन कोयला अभी भी जमीन में सुरक्षित है. इन में से ज्यादातर कोयला ओरीस्सा, छत्तीसगढ और झारखंड की खदानों में है. आज तक गुजरात के मांचेस्टर अहमदाबाद की टेक्सटाइल मीलों को चलाने के लिए इन्ही कोयले का इस्तेमाल हुआ. झारखंड अब तक बिहार में था और थर्मल पावर स्टेशन के लिए जरूरी कोयला बिहार में ही था, फीर भी बिहार में अब तक सिर्फ दो पावर स्टेशन्स बने और उनकी पावर जनरेशन केपेसीटी भी 50-60 मेगावोट और 80-90 मेगावोट ही है. (बिहार सोशीयो-इकोनोमीक रीव्यू-2011-2012). सच तो ये है कि ओरीस्सा, छत्तीसगढ और झारखंड की गरीबी के लिए गुजरात जिम्मेदार है. परीमल नथवाणी नामका रीलायन्स का दलाल झारखंड का एमपी है, जिसे झारखंड से कोई लेना देना नहीं है. एक गुजराती हो कर भी मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होता.  

नितिशकुमार के बिहार में तेंदुलकर कमीटी के निष्कर्ष अनुसार 54.5 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे है. गुजरात में बीपीएल परीवारों की तादाद कुल आबादी का 16.8 फीसदी हिस्सा है. हालांकि यह सरकारी आंकडा है, और उस पर संदेह किया जा सकता है, फीर भी बिहार की तुलना में गुजरात की आर्थिक स्थिति अच्छी है. गुजरात में 20,59,380 हिन्दीभाषी लोग बसते है. सूरत में उनकी जनसंख्या 5,78,255 है. पूरे गुजरात में इंट भठ्ठो में अपने परीवार के साथ काम करते मजदूरों का, अहमदावाद, राजकोट, सूरत जैसे शहरो में रात को दो बजे तक मटन-खीमा की प्लेटें साफ करनेवाले बिहारी बच्चों का, दक्षिण राजस्थान से बीटी कोटन के खेतों में काम करने के लिए बीकनेवाली लडकियों की इसमें कीसीने गणना नहीं की.       

1 टिप्पणी:

  1. अभी अभी मैं और मनीषी रिवर फ्रंट पर लगा पुस्तक मेला देखके वापस आ रहे थे तब आई. आई. एम. के बराबर सामने माइग्रंट आदिवासी मज़दूरोको तिन ईट के टुकडो पर रोटी सेकते देखे, इर्दगिर्द औरते और बच्चे भी पूरे दिन की मज़दूरी करके थके हारे बैठे दिखते थे. और ऐसे झुण्ड के झुण्ड शहर के हर नाके पर हर सुबह अपने को बेचके दो वक्त की रोटी पानेके लिए गुलामोके बाज़ारकी भांति निलामिके लिए खड़े दीखते है. एक मोदी को ही यह सब नहीं दीखता और वह तमाशे पे तमाशे किये जा रहा है - कभी पुस्तक मेला, तो कभी कृषि मेला तो कभी पतंग मेला तो कभी सद्भावना मेला...

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