रविवार, 25 नवंबर 2012

बाप-बेटा


बाप ने इस देश में सेक्युलरीज़म से जो दुष्कर्म किया, बेटा उसी दुष्कर्म का नतीजा है. बाप ने मस्जिद का ताला तोडा, बेटे ने मस्जिद ही गीरा दी. बाप ने बा ठाकरे को पैदा किया, बेटे ने उसके साथ मिलकर राज किया, अब बा ठाकरे मर गया तो बाप ने उसे तिरंगा में लपेटकर वीरोचित सम्मान दिया. बाप खादी के शर्ट तले अभी भी बेटे का जांगीया पहनता है. इस देश को बाप-बेटे दोनों से जल्द से जल्द मुक्ति मीलें.

सोमवार, 19 नवंबर 2012

एक सेक्युलर गलतफहमी


अगर आप इस देश को सेक्युलर मानते हैं, तो आप बडी गलतफहमी कर रहे हैं. सेक्युलारीज़म सिर्फ संविधान के पन्ने पर है. इस देश का ऱाष्ट्रपति उस शंकराचार्य को प्रणाम करता है, जो सिर्फ अपने जन्म के अकस्मात से उस जगदगुरु के आसन पर बैठा है. इस देश की सर्वोच्च अदालत खात मुहुर्त में उन सवर्ण ब्राह्मणों को बुलाती है, जो कभी भी दलितों के घरों में किसी भी धार्मिक प्रसंग पर नहीं जाते. बाबरी मस्जिद की जगह राम लल्ला का, चाहे छोटा, मंदिर बन चूका है और उस मंदिर का स्टेटस क्वो बनाये रखने में इस देश का पूरा पोलीटीकल एस्टाब्लीशमेन्ट एकजुट है. बाल ठाकरे इसी कम्युनल स्टेट की पनाह में बैठकर कभी मुसलमानों को, कभी दलितों को, कभी बिहारियों को तो कभी मद्रासियों को गालियां देता था. नरेन्द्र मोदी इतना बडा नरसंहार करवाने के बाद ईसी देश में प्राइम मीनीस्टर बनने का ख्वाब पाल सकता है. आप बहुत दुखी है? सेक्युलारीज़म पर एक सेमीनार रख दिजीये. फंड अच्छा मीलेगा.

रविवार, 18 नवंबर 2012

एक लोमडी की मौत पर


"1985 में संभाजीनगर के चुनाव के बाद मराठावाडा में शिवसेना का त्वरित गति से प्रसार हुआ. सेना का मुख्य शस्त्र अंबेडकर का विरोध था. मराठावाडा में दलितों को छोडकर बाकी सभी लोग सामान्यत: नामांतर के पक्ष में नहीं थे, यह बात शिवसेना को मालुम थी. नामांतर का विरोध करेंगे तो इससे राजकीय फायदा होगा, ऐसा सोचकर शिवसेना ने नामांतर विरोधी भूमिका अपनाई थी. बालासाहब ठाकरे ने धोषणा की थी कि किसी भी परिस्थिति में मराठावाडा विश्व विद्यालय का नामांतरण नहीं होने देंगे. उन्होने ऐसा प्रचार भी किया कि "डॉ. बाबासाहब अंबेडकर निज़ाम के एजन्ट थे." इस प्रचार से अंबेडकर के अनुयायी बहुत गुस्सा हुए थे और एक बार फिर मोरचा, प्रति मोरचा और धमकियों की बाढ़ उमटी. रीडल्स प्रश्न को लेकर जिस तरह सामाजिक वातावरण दिन प्रति दिन गर्म होता गया था इसी तहर फिर से वातावरण गर्म होने लगा था. यह सारी वारदातें 1992 जुलाई और ऑगस्ट महिने की है."  (पेइज 109, मैं, मनु और संघ, रमेश पतंगे)

आरएसएस के एक कार्यकर्ता ने अपनी किताब में बाल ठाकरे की दलित विरोधी भूमिका का इस तरह सटीक वर्णन किया है. हिटलर का प्रसंशक ठाकरे बाघ था या लोमडी था, जर्मन था या भारतीय था यह प्रश्न फिलहाल हम नहीं पूछेंगे, मगर कभी दलित तो कभी मुसलमान, कभी दक्षिण भारतीय तो कभी बिहारी के खिलाफ झहर उगलनेवाले इस गुन्डे को "देशभक्त" का ख़िताब देनेवाली जमात को हम माफ नहीं कर सकते.

1988 में शिवसेना ने बाबासाहब अंबेडकर के ग्रंथ "रीडल्स इन हिन्दुइझम" का विरोध किया था. इस ग्रंथ के परिशिष्ट "रीडल्स ऑफ राम एन्ड क्रिष्ना" (राम और कृष्ण के गुढ रहस्य) से उन्हे एतराज था. हालांकि उसमें बाबासाहब ने कुछ नया नहीं लिखा था. वाल्मीकि रामायण और बौद्ध रामायण में यह सारी बातें सदियों पहले लीखी जा चूकी थी. मगर, 1988 में शिवसेना-बीजेपी तथा पूरा संघ परिवार अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने की साजिश बना रहे थे. उस वक्त राम की दिव्यता में जरा सी भी दरार उन्हे मंजुर नहीं थी. रीडल्स किताब की होली करके शिवसेना ने मुंबइ में दो लाख की रेली निकाली थी. तब अंबेडकरवादियों ने चार लाख की रेली निकाली थी और दलित युवकों ने हुतात्मा चौक में महाराष्ट्र के स्वाभिमान पर शिवाम्बू छीडककर पूरे देश को यह संदेश दिया था कि बाबासाहब के विचारों को दफनाने के किसी भी दुस्प्रयास के भयानक परीणाम आयेंगे.

उस समय हमने अहमदाबाद में रेली निकाली थी. उसमें भाग लेने के लिए मुंबई से प्रा. अरुण कांबले आए थे. कांबले ने भयानक मानसिक स्थिति में कुछ साल पहले आत्म-विलोपन किया था. ठाकरे जैसे मनुवादी देश के आर्थिक पाटनगर में मूडीवादियों के दलाल बनकर, कामगार आंदोलनों को खत्म करके, अपने ही देश बांधवों के खिलाफ जहर उगलकर देश की एकता नष्ट करके मरते है तब मीडीया उसे महात्मा बनाने में कोई कसर नहीं छोडती और कांबले जैसे अंबेडकरवादी आत्म-विलोपन करते है, किसी को पता तक नहीं चलता. आज एक लोमडी की मौत पर एक शेर अंबेडकरवादी को मेरा सलाम.

शनिवार, 17 नवंबर 2012

संघ और मनुवाद


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में शामिल होते वक्त हर कार्यकर्ता एक प्रतिज्ञा लेता है:
"सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर एवम् हमारे पूरखों का स्मरण करके मैं यह प्रतिज्ञा करता हुं कि हमारे पवित्र हिन्दु धर्म हिन्दु संस्कृति तथा हिन्दु समाज का संरक्षण करके हिन्दु राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिस्सा बना हुं. मैं संघ का कार्य प्रमाणिकता से, निस्वार्थ बुद्धि से और तन-मन-धन से करुंगा. यह व्रत का पालन मैं आजीवन करुंगा."

संघ के समर्थक कहते हैं कि इस प्रतिज्ञा में कहीं भी मनु का कोई उल्लेख नहीं है, फिर भी संघ को बिना वजह मनुवादी कहा जाता है. संघ का लेखित संविधान है. इस संविधान की प्रस्तावना इस तरह है:

"आज देश की विघटीत स्थिति में, 
   a. हिन्दुओं के विभिन्न पंथ, मत, संप्रदाय के कारण उत्पन्न भेद, और इसी तरह आर्थिक, भाषा तथा प्रांतीक वैविद्य के कारण पैदा होनेवाले भेदों को दूर करने के लिए-  
   b. उन्हे (हिन्दुओं को) उनके उज्जवल अतीत का स्मरण कराने के लिए,
   c. हिन्दुओं में सेवा, त्याग और निस्वार्थ-भक्तिभाव का निर्माण करने के लिए
   d. इस तरह संगठित तथा अनुशासित जीवन उत्पन्न करने के लिए-
  
हिन्दु समाज का सर्वांगीण पुन:जीवन करने के लिए एक संगठन की आवश्यकता महेसूस हुई. तद् अनुसार सन 1925 में विज्यादशमी के शुभ मुहुर्त पर स्व. डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम से एक संगठन का प्रारंभ किया."

इस प्रतिज्ञा ध्यान से पढें. स्वयंसेवक पवित्र हिन्दु धर्म, हिन्दु संस्कृति तथा हिन्दु समाज का रक्षण करने की प्रतिज्ञा लेता है. उसे ऐसी प्रतिज्ञा लेने की क्यों जरूरत पडी? आगे बताया गया है कि "आज देश की विघटित स्थिति में" ऐसी प्रतिज्ञा लेने की जरूरत पडी है. विघटित स्थिति का क्या अर्थ है? विघटन का आधार "आर्थिक, भाषा तथा प्रांतीक वैविध्य" है. दो हजार साल पहले भी कुछ लोग अमीर थे, कुछ लोग गरीब थे. मगर समाज विघटित नहीं था. क्योंकि उस वक्त समाज धर्म के, वर्णव्यवस्था के अनुशासन से बंधा हुआ था. अब आधूनिक समय में जब समाज में विघटनकारी शक्तियां,  समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद जैसी विचारधाराएं सक्रिय हुई है, तब हिन्दु समाज को संगठित करने के लिए संघ का निर्माण हुआ है. प्राचीन भारत में भी बुद्ध और महावीर के रूप में ऐसी "विघटनकारी" शक्तियां थी, जिसे हराने के लिए मनु ने मनुस्मृति का निर्माण किया, समाज को संगठित किया. संघ परिवार अब मनु का नाम लिए बिना समतामूलक विचारधाराओं से लड रहा है. 

संघ की स्थापना 1925 में हूई थी. तब देश में जाति-धर्म के आधार पर आबादी की गणना शूरू हो चूकी थी. 1881 में जब पहली बार गणना हूई, तब हिन्दु को पहचानने के लिए कोई मानदंड नहीं था. इस लिए अंग्रेजो नें 'मुसलमान' और 'गैर-मुसलमान' ऐसी दो केटेगरी तय की थी. मुसलमान को पहेचानना सरल था, उसकी निश्चित आइडेन्टीटी थी. मुसलमान को छोडकर बाकी सभी लोगों को 'गैर-मुसलमान' केटेगरी में डाल दिये गये थे. फिर दस साल बाद, इस 'गैर-मुसलमान' केटेगरी में से 'अछूत' को अलग करने के लिए दस मानदंड तय किये गये. बाबासाहब अंबेडकर ने यह सारी प्रक्रिया का वोल्यूम पांच में अच्छा विवरण किया है. 'हिन्दु' को अपनी पहेचान देने के लिए संघ अंग्रेजों का ऋणी है, मगर संघ अंग्रेजों को 'थेंक यु' नहीं बोलेगा, क्योंकि उसी अंग्रेजों में से एक राम्से मेकडोनाल्ड ने कोम्युनल एवार्ड देकर (संघ के मुताबिक) हिन्दुओं को विभाजित किया था. 

संघ और गांधीजी दोनों की विचारधारा का स्रोत यह पवित्र हिन्दु धर्म है. संघ के स्वयंसेवकों के पास अभी जो लाठी है, वह सचमुच महात्मा गांधी की है, इस बात में मुझे कोई शंका नहीं है. संघ और गांधीजी दोनों अपने आपको तथाकथित 'अछूतो' के संरक्षक समजते है. 'अछूतों' का नेतृत्व संघ और गांधीजी दोनों को पसंद नहीं है. संघ के 'हिन्दु राष्ट्र' और गांधीजी के रामराज्य में ज्यादा फर्क नहीं है. बीसवीं सदी में पूरी दुनिया में इतना बडा मूल्य परिवर्तन हुआ था, कि अस्पृश्यता का समर्थन करने की किसीकी भी हिंमत नहीं थी. इसलिए गांधीजी कहते हैं, कि शंबुक की कथा क्षेपक (बाहर से डाली गई) है. मगर यह गांधीजी का निजी अभिप्राय था. हिन्दु समाज गांधीजी के इस अभिप्राय से सहमत नहीं था. 

कौटिल्य ने कहा था कि जिस संगठन का मुखिया ब्राह्मण ना हो उस संगठन में अराजकता होती है. मनु ने ब्राह्मण के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक नेतृत्व को थोपा था, इतना ही नहीं उसे 'दिव्य' स्वरूप दिया था. संघ परिवार इस अर्थ में मनुवादी है.