गुरुवार, 15 नवंबर 2012

टीकेश मकवाणा - सेक्युलारीज़म के सच्चे सिपाही



टीकेश मकवाणा सेक्युलारीज़म के सच्चे सिपाही थे. गोधरा-कांड के बाद जब पूरे गुजरात में राज्य-प्रेरीत नरसंहार अपनी चरम सीमा पर था, तब कुछ बहादुर लोगों ने अपने जान की भी परवा किए बिना कट्टरपंथियों के खिलाफ आवाज़ उठाई थी, टीकेश उन चंद जां-निसारों में से एक थे. जब आप के पडोश में कोई मुसलमान ना हो, तब आप सुकुन से सेक्युलारीज़म पर लंबा भाषण दे सकते हो. दलितों के लिए सेक्युलारीज़म कीसी सीम्पोज़ीयम का विषय नहीं है, क्योंकि वे सदियों से मुसलमानों के साथ रहते आए हैं और उन्हों ने ही सेक्युलारीज़म को इस देश में बचाया है, संवारा है. टीकेश ने अपने ही घर के सामने मुसलमानों की जलती हुई दुकानों को बचाने का साहस किया था और बीजेपी-वीएचपी ने दलित महिलाओं को टीकेश के खिलाफ भडकाकर उनके ही घर के सामने विरोध प्रदर्शन करवाया था. पूरे गुजरात में किसी भी सवर्ण बुद्धिजीवी ने टीकेश की तरह अपनी जान की बाज़ी लगाकर ऐसा काम किया नहीं था. 

मैंने टीकेश मकवाणा के लेख़ों का संपादन "एक पथ्थर तो तबियत से उछालो यारो" किताब में किया है. 2002 के बाद पूरे देश के सेक्युलर प्रवासी गुजरात में आए. सब अपना अपना एजन्डा लेकर आते थे. उनके लिए दंगाग्रस्त इलाकों में जाना मुश्कील था. वे ज्यादातर पश्चिम अहमदाबाद की होटलों में ठहरते थे. कुछ जाने माने बुद्धिजीवियों से मीलते थे. और वे जो कुछ कहते थे, उसके आधार पर अपना अभिप्राय बनाते थे. ऐसा सेक्युलर प्रवासन लंबे समय तक चलता रहा था. उनमें से किसी को टीकेश मकवाणा का अता पता मालुम नहीं. प्रसिद्धि और मीडीया की रोशनी से दूर कुछ लोग अंधेरे में दिया जलाने का दुसाहस करते है. मरहूम टीकेश मकवाणा ऐसी बेमिसाल शख़्सियत थी, जिसे कट्टरपंथियों ने बेहद ज़लील किया था और जिसका मरसिया लिखने की भी किसी की हिंमत नहीं हूई थी. हमें टीकेश मकवाणा पर नाज़ है, क्योंकि वे सच्चे अंबेडकरवादी थे, सच्चे सेक्युलारीस्ट थे.   

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